Sunday 30 March 2014

संस्कृत सुभाषितोंका परिचय - १

नववर्षका संकल्प ... संस्कृत सुभाषितोंका परिचय

आजका सुभाषित

५२. माता यदि विषम् दद्यात् विक्रिणीते पिता सुतम् ।
राजा हरति सर्वस्वम् तत्र का परिवेदना ।।
 अगर माताही उसके बच्चेको जहर दे, पिताही बेटेको बेच दे और राजाही प्रजाका सर्वस्व लूट ले तो इसकी शिकायत कहाँ और कैसे करें? (अगर रक्षकही भक्षक न जाये तो क्या करे? बडीही मुश्किल होगी।)
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५१, धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।
तस्मात् धर्मो न हन्तव्यः मा नो धर्मः हतोsवधीत् ।।
 अगर कोई धर्मका नाश करेगा तो धर्म उसका नाश करता है और जो धर्मका रक्षण करता है उसका रक्षण धर्म करता है। हमे धर्मका नाश नही करना चाहिये ताकि वह अपना नाश नही करेगा। (सुभाषितोंकी रचनाके  कालमे  अलग अलग धर्म नही होते थे, धर्म इस शब्दका अर्थ नीतीनियम होता था)
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५०. न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः । न ते वृद्धाः ये न वदन्ति धर्मम् ।। 
न असौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति । न तत्सत्यम् यच्छलेनाभ्युपेतम् ।।
 जहाँ वृद्ध जन न हो वह सभा नही, जो धर्म - नीतीकी बातें न करते हो वे वृद्ध नही, जिसमें सत्य न हो वह धर्म नही और जो कपटसे भरा हो वह सत्य नही। निष्कपट सत्य ही वास्तविक धर्म है जो वृद्ध जनोंके मुखसे
निःसृत होता है।
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४९. द्राक्षाम्लानमुखी जाता शर्कराचाश्मताम् गता ।
सुभाषितरसस्याग्रे सुधा भीता दिवम् गता ।।
 सुभाषितोंका माधुर्य देख शराब (द्राक्षा) उदास (म्लान) हो गयी, शक्कर पत्थरके चूर्णके समान हो गयी और अमृत डरके मारे स्वर्गमे चली गयी। (सुभाषितोंका रस शराब, शक्कर और अमृतसेभी अधिक मधुर होता है।)
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४८. संपूर्णकुंभो न करोति शब्दम् । अर्धो घटो घोषमुपै नि नूनम् ।।
विद्वान कुलीनो न करोति गर्वम् । गुणैर्विहीना बहु जल्पयन्ति।।
 पूरा भरा हुआ घडा (कुंभ) आवाज नही करता, आधा भरा घडा आवाज करता है। विद्वान तथा कुलीन मनुष्य घमंड नही करता, गुणहीन मनुष्यही व्यर्थ बकबक करता रहता है। 
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४७.  यः पठति, लिखति, पश्यति, परिपृच्छति, पंडितानृपाश्रयति ।
तस्य दिवाकरकिरणैर्नलिनीदलमिवविकास्यते बुद्धिः ।।
 जो (मनुष्य) वाचन, लेखन, निरीक्षण करता है, प्रश्न पूछता है और पंडितोंकी सेवा करता है उसकी बुद्धी सूर्यकिरणोंसे विकसित होनेवाले कमलकी तरह विकसित होती है।
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४६. आपत्काले तु संप्राप्ते यन्मित्रं मित्रमेव तत् ।
वृध्दिकाले तु संप्राप्ते दुर्जनोsपि सुहृद् भवेत् ।।
 संकटकालमे साथ देनेवाला मित्रही सच्चा मित्र होता है, वैभवकाल आनेपर दुर्जनभी मित्र बन जाते हैं।
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 ४५. सुखार्थी त्यजते विद्याम् विद्यार्थी त्यजते सुखम् ।
सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतो सुखम् ।। 
 सुखके पीछे दौडनेवाला विद्याका त्याग करता है और विद्या प्राप्तिका इच्छुक सुखका त्याग करता है। सुखार्थीको विद्या कहाँसे मिलेगी और विद्यार्थीको सुख कहाँसे मिलेगा?
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 ४४. ज्ञानमंत्रसदाचारैः गौरवं भजते गुरुः ।
तस्माच्छिष्यः क्षमी भूत्वा गुरुवाक्यं न लंघयेत ।।
 ज्ञान, विचार, सदाचार इनके कारण गुरूका गौरव होता है। शिष्यको चाहिये कि वह शांत वृत्ती धारण किये ऐसे सद्रुरूकी आज्ञाका उल्लंघन न करे।. (इसमे उसकी भलाई है।)
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 ४३. क्षमा शत्रौ च मित्रे च यतीनामेव भूषणम् ।
अपराधिषु सत्वेषु नृपाणाम् सैव दूषणम् ।।
 शत्रू और मित्र दोनोंकोही क्षमा करना साधूसंतोंके लिये भूषणास्पद होगा, मगर अपराधियोंको क्षमा करना राजाओंके (शासकोके) लिये दूषणास्पद होगा। उन्होंने अपराधियोंको सजा देनीही चाहिये।
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४२. न हि कश्चिद्विजानाति किं कस्य श्वो भवेदिति ।
अतःश्वः करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धीमान् ।।
 कल किसका क्या होनेवाला है यह कोई नही जानता। इसलिये बुद्धीमानको चाहिये कि कल किये जानेवाले काम आजही कर डाले।
   एक कहावत है, कल करेसो आज कर, आज करे सो अब, पलमें परलय होयेगो बहुरी करोगे कब?
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४१. जानन्ति पशवो गंधात् वेदाज्जानन्ति पण्डिताः ।
चाराज्जानन्ति राजानः चक्षुभ्यामितरेजनाः ।।
गंधसे पशुओंको (उस वस्तूका) ज्ञान होता है, पंडितोंको वेदोंसे (उस विषयका) ज्ञान प्राप्त होता है, राजाओंको गुप्तचरोंसे ज्ञान प्राप्त होता है और सामान्य लोगोंको अपनी आँखोंसे ज्ञान प्राप्त होता है ।
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४०. सुलभाः पुरुषाः राजन् सततं प्रियवादिनाः।
अप्रियस्यच पथ्यस्यवक्ताश्रोता च दुर्लभः ।।
हे राजन्, हमेशा प्रिय बोलनेवाले लोग सुलभ होते हैं, मगर हितकर परंतु अप्रिय बोलनेवाला और वह सुननेवाला ये दोनोंही दुर्लभ होते हैं।
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 ३९. उद्यमः साहसं धैर्यं बलं बुद्धिः पराक्रमः ।
षडेते यत्र वर्तंते तत्र देवः सहायकृत् ।।
 उद्यम (प्रयत्न), साहस, धैर्य, बल, बुद्धी और पराक्रम ये छह बातें जिसके पास होती है, भगवान इसीकी सहायता करते है।
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३८. अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः ।
चत्वारि यस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम् ।।
 जो अभिवादनशील (नम्र स्वभाववाला) है और जो वृद्धोंकी सेवा करता है उसकी आयु, विद्या, यश तथा बल इनमें वृद्धी होती है।
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३७. धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पंचमः
पंच यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसम् वसेत् ।।
 धनवान, वेदवेत्ता, राजा (शासक), नदी और वैद्य ये पाँच जहाँ नहो वहाँ एक दिनभी नही रहना चाहिये । (इन पाँचोंका होना बहुत आवश्यक होता है।)
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३६. लक्ष्यमेकम् तु निश्चित्य तत्रैकाग्रम् मनः कुरू ।
संयमेन कृतम् कार्यम् शीघ्र सिद्धिम् प्रयच्छति ।। 
 अपने सामने एक ध्येय (लक्ष्य) निश्चित करो और उसीपर मनको एकाग्र करो। संयमपूर्वक कार्य करनेसे शीघ्रही सिद्धी प्राप्त होगी।

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३५. तावद्भयस्य भेतव्यम् यावद्भयमनागतम् ।
आगतं तु भयम् वीक्ष्य पिरतिकुर्यात् यथोचितम् ।।
संकट किंवा भय जबतक प्रत्यक्ष उपस्थित ना हो तभीतकही उससे डरे। परंतु जब वह आकर उपस्थित हो, तब निडर होकर उसका यथोचित प्रतिकार करना चाहिये।
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 ३४. गुणिनाम् निर्गुणाम् च दृष्यते महदंतरम् ।
हारः कंठगतः स्त्रीणाम् नूपुराणिच पादयोः।।
 गुणवंत और गुणहीन इनमे बहुत अंतर दिखायी देता है। गुणी सूत्रसे युक्त हार नारीके गलेमें (उच्च स्थानपर) पहनाया जाता है, मगर पायल उसके पैरोंमे।
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३३. मृगाः मृगैः संगमनुव्रजन्ति गोभिश्च गावः तुरगास्तुरंगैः ।
मूर्खाश्च मूर्खैः सुधियः सुधीभिः समानशीलव्यसनेषु सख्यम् ।।
 हिरन हिरनोंके (झुंडके) साथ जाते हैं, गायें गायोंके साथ, घोडे घोडोंके साथ, मूर्ख मूर्खोंके साथ और बुद्धिमान बुद्धिमानोंके साथ जाते हैं। समान स्वभाववाले लोग व्यसन, संकटके समय एकदूसरेके साथ मित्रता करते हैं।

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३२. मांसम् मृगाणाम् दशनौ गजानाम् , मृगद्विषाम् चर्म फलम् द्रुमाणाम् ।
स्त्रीणाम् स्वरूपम् च नृणाम् हिरण्यम् , एते गुणाः वैरकरा भवन्ति ।।
हिरनोंका मांस, हाथीके दाँत, व्याघ्रका चमडा, पेडोंके फळ, स्त्रियोंके रूप-लावण्य, मनुष्यका सोना (धन) ये बातें बैर उत्पन्न करनेवाली (उनके लिये घातक) होती हैं। .
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३१. यथाखरश्चंदनभारवाही, भारस्य वेत्ता न तु चन्दनस्य ।
तथाच विप्राः श्रुतिशास्त्रयुक्ताः मद्भक्तिहीनाः खरवद्वहन्ति ।।
जिस प्रकार चन्दनकी लकडीका भार ढोनेवाले गधेको सिर्फ बोझ का ज्ञान होता है, चंदनका नही, उसी तरह वेदशास्त्र पारंगत ब्राह्मण अगर ईश्वरभक्तीसे युक्त न हो तो वह भी उस गधेकी तरह केवल ज्ञानका बोझ ढोता रहता है, उसे यथार्थ ज्ञान नही होता।
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 ३०. यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् ।
लोचनाभ्याम् विहीनस्य दर्पणः किम् करिष्यति ।।
 जिसके पास स्वयंकी प्रज्ञा (ग्रहणशक्ती) न हो उसे शास्त्र क्या करे? जैसेकि अंधेको आइना दिखानेसे क्या फायदा?
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२९. बंधनानि खलु सन्ति बहूनि प्रेमरज्जु दृढबंधनमुच्यते ।
दारुभेदनिपुणोपि शडंघ्रिः निष्क्रियो भवतिपंकजकोषे ।। 
 संसारमे बहुतसे बंधन है, पर प्रेमकी डोरका बंधन सबसे मजबूत कहा जाता है।. (कठीण) लकडीको कुरेदनेमे निपुण भँवरा (नाजुक) कमलके कोषका भेद कर बाहर निकलनेमे (असमर्थ) निष्क्रिय होता है ।
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२८.  देवे तीर्थे द्विजे मन्त्रे दैवज्ञे भेषजे गुरौ ।
यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ।।
देव, तीर्थ, द्विज, मंत्र, वैद्य या उसकी औषधी तथा गुरू इनके बारेमे अपनी भावना जैसी होगी वैसी ही सिद्धी (फल) प्राप्त होगी। उनके बारेमे मनमे विश्वास न हो तो उनसे कुछ फायदा नही मिलेगा।
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२७. मनो मधुकरो मेघो मानिनी मदनो मरुत् ।
मा मदो मर्कटो मत्स्यो मकाराः दशचंचलाः ।।
 मन, मधुकर (भँवरा), मेघ (बादल), मानिनी स्त्री, मदन, मरुत् (वायु), मा (लक्ष्मी), मद, मर्कट और मत्स्य (मछली) ये म इस अक्षरसे सुरू होनेवाली दस बाते चंचल होती है। एत जगहपर स्थिर नही रहती।
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२६. नवे वयसु यो शांतः स शांत इति मे मतिः।
धातुषु क्षीणमाणेषु शमः कस्य न जायते ।।
 जो आदमी यौवनमें शांत रहता है वही शांत पुरुष है ऐसे मै मानता हूँ। वृद्धापकालमें कौन शांत नही होता?
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 २५. प्रदोषे दीपकश्चंद्रः प्रभाते दीपको रविः ।
त्रैलोक्ये दीपको धर्मः सुपुत्रः कुलदीपकः ।।
 रातका दीपक (चमकनेवाला) चंद्रमा है, प्रभातकालका दीपक (प्रकाश देनेवाला) सूरज है, धर्म तीनो लोकोंका दीपक है और सुपुत्र कुलका (वंशका) दीपक होता है। 
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२४. त्यागः एको गुणः श्लाघ्यःकिमन्यैगुणराशिभिः ।
त्यागात् जगति पूज्यन्ते पशुः पाषाण पादपाः ।।
त्याग ही एक सर्वश्रेष्ठ गुण है। उसके बिना अन्य गुणोंके ढेर भी व्यर्थ है। त्याग इस एकही गुणके कारण इस संसारमें पशु, पाषाण आणि वृक्ष पूजे जाते हैं।.
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२३.  नान्नोदकसमम् दानम् न तिथिर्द्वादशीसमा ।
न गायत्र्यापरो मन्त्रः न मातुःपरदैवतम् ।।
अन्न और पानीका दान करने जैसा दुसरा कोई दान नही, द्वादशीजैसी कोई और तिथि नही, गायत्री मंत्रके समान मंत्र नही और माँके समान श्रेष्ठ दुसरा कोई दैवत नही।
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२२. अश्वम् नैव गजम् नैव, व्याघ्रम् नैव च नेव च ।
अजापुत्रो बलिम् दध्यात् देवो दुर्बलघातकः ।।
 किसी भी देवता के सामने घोडे या हाथीकी बलि नही दी जाती, शेरकी तो कभी नही। बेचारी बकरीके पुत्रकी यानी बकरेकी बलि दी जाती है। इस तरह भगवानभी दुर्बलोंकेही घातक होते है।
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 २१. एकेनापि सुपुत्रेण सिंही स्वपिति निर्भया ।
सहैन दशभिः पुत्रै भारं वहति रासभी  ।।
सिंहनी अपने एक मात्र सुपुत्रके बलपर निर्भय होकर चैनकी नींद सोती है, जबकी गधीके दस पुत्र होनेके बावजूद उन्हीके साथ वह भी बोझ ढोती रहती है।
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२०. युध्यन्ते पक्षिपशवः पठन्ति शुकसारिका।
दातुम् शक्नोति यो वित्तम् स शूरः स च पंडितः।।
पशुपक्षीभी युद्ध करते हैं, तोते और सारिकाभी रटकर ज्ञानकी बाते बताते हैं। जो आदमी धनका दान करता है, वही वीर और पंडित होता है।
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१९. चिंता चिता समानास्ति बिंदूमात्र विशेषता ।
सजीवम्  दहते चिंता निर्जीवम् दहते चिता ।।
चिंता और चिता दोनों एकसमान है। उनमे सिर्फ एक बिंदूका (अनुस्वारका) अंतर है। चिंता जीवितको जलाती है और चिता निर्जीवका दहन करती है।.
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१८. अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रं अमित्रस्य कुतो सुखम् ।।
आलसी आदमीको कहाँसे विद्या प्राप्त होगी? विद्या ना हो तो धन कहाँसे मिलेगा? धन न हो तो मित्र कैसे मिलेगा और मित्र न हो तो सुख कैसे मिलेगा? जिंदगीमें सुख पाना हो तो आलस का त्याग करना जरूरी है।
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 १७. गौरवम् प्राप्यते दानात् न तु वित्तस्य संचयात् ।
स्थितिरुच्चैः पयोदानाम् पयोधीनामधस्तथा ।।
दान करनेसे गौरव प्राप्त होता है, संचय करनेसे नही। पानी बरसानेवाले (प्रदान करनेवाले) बादल आकाशमे उच्च स्थानपर रहते है और उसका संचय करनेवाले समुंदर की जगह नीचे रहती है।
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१६. वृथा वृष्टिः समुद्रेषु वृथा तृप्तस्य भोजनम् ।
वृथा दानम् समर्थस्य वृथा दीपो दिवाsपिच ।।
सागरोंमे बारिश व्यर्थ है। भरपेट खाना खाकर तृप्त हुवे आदमीको भोजन देनेका कोई मतलब नही होता। जो स्वयं समर्थ है उसी दान देना व्यर्थ है और दिनके उजालेमे दिया जलाना व्यर्थ है। जिसे जिस चीजकी बिलकुलही जरूरत नही है उसे वह चीज देना उस चीजका अपव्यय है।
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१५. शैले शैले न माणिक्यम् मौक्तिकम् न गजे गजे।
साधवो न हि सर्वत्र चंदनम् न वने वने।।
हर पर्वतपर माणिक्य रत्न नही मिलता। हर हाथीके मस्तकमे मोती नही होता। हर जंगलमे चंदनके पेड नही उगते। उसी तरह हर स्थानपर (हर कोई) सज्जन नही होता। अच्छी चीजें दुर्लभही होती है।
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 १४. हस्तस्य भूषणम् दानम् सत्यम् कंठस्य भूषणम् ।
श्रोत्रस्य भूषणम् शास्त्रम् भूषणैः किम् प्रयोजनम् ।।
दान हातकी शोभा बढाता है, दान हाथका आभूषण है। सत्य बोलना गलेका आभूषण है। शास्त्र श्रवण करना कान का आभूषण है। फिर अन्य घहनोंकी जरूरत ही क्या है?
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१३. काकः कृष्णः पिकः कृष्णः को भेद पिककाकयोः।
वसंतसमये प्राप्ते काकः काकः पिकः पिकः ।।
कौआ काला होता है और कोयल भी काली ही होती है। फिर इन दोनोंमे क्या फर्क है? पर वसंत ऋतुके आतेही समझमे आता है कि इनमें कौन कौआ है और कौन कोयल। कौआ का का करेगा और कोयल कुहू कुहू।

१२. हंसो शुक्लः बकः शुक्लः को भेद बकहंसयोः।
नीरक्षीरविवेके तु हंसो हंसः बको बकः ।।
हंस भी सफेद होता है और बगुला भी सफेद होता है। फिर इन दोनोंमे क्या फर्क है? पानी और दूध का विवेक करते समय ये समझमे आता है कि कौन हंस है और कौन बगुला। हंस पक्षी पानी और दूध का विवेक करता
है मगर बगुला नही।
इन दोनों सुभाषितोंसे यह सीख मिलती है कि बाह्य रूप एक जैसा हो, मगर गुण भिन्न हो सकते हैं। किसीका सिर्फ रूप देखनेकी बजाय उसके गुणोंको देखना चाहिये।
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११. सर्वे यत्र विनेतारः सर्वे पंडितमानिनः।
सर्वे महत्वमिच्छंति कुलम् तदवसीदति।।
जिस कुलमे सभी नेता होना चाहते हैं, सभी स्वयंको पंडित मानते हैं, सभी महत्व पानेके इच्छुक होते हैं, वह कुल नष्ट हो जाता है। (क्यों कि उस कुलके लोग  हमेशा एकदूसरेसे झगडते रहते हैं।)
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१०. चलं चित्तं चलं वित्तं चले जीवितयौवने ।
चलाचलमिदंसर्वं कीर्तिः यस्य स जीवति ।।
मन और धन चंचल होते हैं, जीवन तथा यौवनभी अस्थिर होते हैं। चिरकालतक स्थिर रहती है मनुष्यकी कीर्ती। मनुष्य कीर्तीरूपसे जीवित रहता है (अमर होता है)।
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९. यस्मिन् देशे न सन्मानो न प्रीतिर्नच बांधवाः ।
न च विद्यागमः कश्चित् न तत्र दिवसम् वसेत् ।।
जिस देशमे (स्थानपर) हमारा सम्मान नही होता, किसीसे प्रेम नही मिलता, कोई अपने रिश्तेदार नही होते, कोई विद्या प्राप्त होनेकी संभावना नही होती, वहाँ एक दिन भी नही रहना चाहिये। .... अब ये सोच कुछ बदल गयी है, मगर परदेसमें सम्मान, प्रेम, बंधुभाव या सीख इसमेंसे कुछ भी मिलनेपर बडी तकलीफ होती है।   
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८. पुस्तकस्था तु या विद्या परहस्तगतम् धनम्।
कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद् धनम्।।
पुस्तकोंमे लिखी विद्या और दूसरेके कब्जेमे रखा धन जब उनकी सख्त जरूरत हो तब काम नही आते। विद्याको सीख लें और धनको अपने पासही सुरक्षित रखें तो वह बेहतर होगा।
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७. अतिपरिचयादवज्ञा संततगमनादनादरोभवती।
मलये भिल्लपुरंध्री चंदनतरुकाष्ठमिँधनंकुरुते।।
अति परिचय होनेसे अवज्ञा होती है। आपकी बात अनसुनी की जा सकती है। किसीके पास बार बार जानेसे अपमान हो सकता है। मलयपर्वतपर रहनेवाली भीलनी वहाँ चारों ओर फैले हुवे चंदनवृक्षकी लकडी का उपयोग चूल्हा जलानेके लिये करती है। यह बहुत पुरानी बात है। उन दिनों वीरप्पनजैसे चंदनके तस्कर नही होते थे।
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६. यौवनं धनसंपत्तिः प्रभुत्वं अविवेकता ।
एकैकमपि विनाशाय किमु यत्र चतुष्टयम् ।।
 यौवन (जवानी), धनसंपत्ति, प्रभुत्व (सत्ता) और अविवेक (मूर्खता) इनमेसे एकेक बात भी आदमीको तबाह कर सकती है। अगर ये चारों बाते किसीमे इकठ्टा हो जाये तो फिर क्या कहने? इनसे जरासा सम्हलकरही रहना।

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५. विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च ।
व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च ।।
यात्राके समय विद्या मनुष्यकी मित्र होती है, वह उसके काम आती है। घरमे रहते समय पत्नी उसकी मित्र होती है, वह हर तरहसे उसकी सहायता करती है। बीमारके लिये औषध मित्र है, उसे ठीक करता है और मृतकके लिये धर्म उसका मित्र होता है।
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४. सर्वेषामेवशौचानाम् अर्थशौचं परं स्मृतम् ।
योsर्थे शुचिः स हि शुचिः नमृद्वारिशुचिःशुचिः ।।
धनविषयक पवित्रता सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। जो आदमी रुपयेपैसेके मामलेमे सच्चा हो, हेराफेरी न करे, वह ही यथार्थमे शुद्ध है। केवल मिट्टी और पानीकी शुद्धी (बाह्य शुद्धी) पवित्र नही होती। 
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३. अमंत्रं अक्षरं नास्ति नास्ति मूलमनौषधम्।
अयोग्यः पुरुषो नास्ति योजकस्तत्रदुर्लभः।।
ऐसा कोई अक्षर नही जो मंत्र न हो, ऐसी कोई वनस्पती नही जिसमे औषधी गुण न हो,  कोई पुरुष अयोग्य नही होता, इन सभीका योग्य उपयोग कर लेनेवाला योजक ही दुर्लभ होता है। हर चीज या आदमी उपयुक्त होता है, उसका सही उपयोग कर लेना आसान नही होता। कुछ योजक वह काम करते हैं।
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आज इस उपक्रमकी शुरुवात की है। इसमे एक एक करके सुभाषित जुडते जायेंगे।

१. भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाण भारती ।
तस्माद्हि काव्यं मधुरम् तस्मदपि सुभाषितम्।।
सभी भाषाओंमे संस्कृत भाषा प्रमुख, मधुर और दिव्य है। उसमे काव्य अधिक मधुर आहे और सुभाषित उससेभी ज्यादा मधुर है।

२.पृथिव्याम् त्रीणि रत्नानि जलमन्नम् सुभाषितम् ।
मूढैः पाषाणखंडेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।।
इस धरतीपर पानी, अन्न और सुभाषित यही तीन (असली) रत्न है। परंतु मूर्ख लोग पत्थरके टुकडोंकोही रत्न कहते हैं।

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