Saturday 19 July 2014

संस्कृत सुभाषितोंका परिचय - २

सुभाषितोंकी मधुरता अपरंपार है।  सुभाषितोंका माधुर्य देख शराब (द्राक्षा) उदास (म्लान) हो गयी, शक्कर पत्थरके चूर्णके समान हो गयी और अमृत डरके मारे स्वर्गमे चली गयी। (सुभाषितोंका रस शराब, शक्कर और
अमृतसेभी अधिक मधुर होता है।)
सुभाषितोंकी संख्याका ध्यान रखते हुवे पचास सुभाषित पहले विभागमें रखकर अब यह दूसरा विभाग शुरू कर रहा हूँ।
पहले विभागके सारे सुभाषित इस लिंकपर पढे जा सकते हैं।
http://anandjikapitara.blogspot.in/2014/03/blog-post_30.html
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आजका सुभाषित

७५. निर्गुणेष्वपि सत्वेषु दयां कुर्वन्ति साधवः ।
न हि संहरते ज्योत्स्नाम् चन्द्कश्चांडालवेश्मनः।।
सज्जन लोग गुणहीनों पर भी दया करते हैं। चंद्रमा उसका प्रकाश चांडाल के घर पर से समेट नही लेता। (वह सभी लोगों को एक जैसा ही प्रकाश देता है।
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 उदारस्य तृणम् वित्तम् शूरस्य मरणम् तृणम् ।
विरक्तस्य तृणम् भार्या निःस्पृहस्य  तृणम् जगत् ।।
७४. उदार मनुष्य धनदौलत को तृण के समान तुच्छ समझता है। शूर पुरुषको मृत्यू तुच्छ लगता है। विरागी पुरुष को पत्नी महत्व हीन लगती है और निःस्पृह व्यक्ती को सारा संसार तुच्छ लगता है।. जिस प्रकार के व्यक्ती को जिस चीज की आसक्ती न हो वह चीज औरोंको भलेही बहुत महत्वपूर्ण लगती हो, उस व्यक्ती को वह घास जितनी तुच्छ प्रतीत होती है।

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विद्वत्वम् च नृपत्वम् च नैव तुल्य कदाचन ।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान सर्वत्र पूज्यते ।।
७३. विद्वत्ता और राजा (सत्ताधीश) होना इनकी तुलना नही हो सकती।. राजा को केवल उसके राज्य मे पूजनीय माना जाता है, राजाका (शासकका) सम्मान  केवल उसी सीमा तक किया जाता है। मगर विद्वानका सम्मान सर्वत्र होता है।

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 नारिकेलसमाकाराः दृष्यन्ते खलु सज्जनाः ।
अन्ये बदरिकाकाराः बहिरेव मनोहराः ।।
७२. सज्जन लोग नारियल के बाहरी रूप जैसे दिखते हैं और अन्य लोग बेर के समान बाह्य रूप से सुंदर होते हैं।
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 सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धम् त्यजति पण़्डितः ।
अर्धेन कुरुते कार्यम् सर्वनाशोहि दुःसहः ।।
७१. सर्वनाश का समय आनेपर ज्ञानी मनुष्य आधेका त्याग करता है और बचाये हुवे आधे भाग से अपना काम चलाता है क्यों कि सर्वनाश सहन करना अधिक कठिन होता है।.

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परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः परोपकाराय वहन्ति नद्याः ।
परोपकाराय दुहन्ति गावः परोपकारार्थमिदम् शरीरम् ।।
७०. दूसरोंकी भलाई के लिये वृक्ष फल देते हैं, दूसरोंकी भलाई के लिये नदियाँ बहती हैं, दूसरोंकी भलाई के लिये गायें दूध देती हैं,  हमें यह शरीर दूसरोंकी भलाई के लिये ही मिला हैं।
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महाजनस्य संसर्गः कस्य नोन्नतिकारकः ।
पद्मपत्रस्थितम् तोयम् धत्त् मुक्ताफलश्रियम् ।।
६९. महापुरुषों के सहवास से किसकी उन्नति नही होती? (सभी की होती है।) कमल के पत्र पर पडी हुई पानी की बूँद मोती की सी शोभा धारण करती है।
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यथाचित्तम् तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रियाः।
चित्ते वाचि क्रियायाम् च साधूनामेकरूपता ।।
६८. जो मन में है वही वाणी से प्रकट हो। जो बोला गया है उसी के अनुसार तसेच कार्य हो। सज्जनों के मन, वचन और कार्य में एकरूपता होती है। जैसी कथनी वैसी ही करनी होती है।


स्वंत्रतादिन के सुअवसर पर यह सुभाषित


अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।।
६७. हे लक्ष्मण, यह सोनेकी लंका मुझे नही भाती। मेरी माँ तथा जन्मभूमी (मातृभूमी) मुझे स्वर्ग से भी श्रेष्ठ प्रतीत होती है। लंकाविजय के पश्चात श्रीरामजीने वही रहनेका सुझाव दिया गया था, उस पर श्रीरामजीने यह उत्तर दिया था। 
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आरोप्यते शिला शैले यत्नेन महता यथा ।
पात्यते तु क्षणेनाधः तथात्मा गुणदोषयोः ।।
६६. पर्वतपर शिला चढाने के लिये बहुत कष्ट उठाने पडते है, परंतु उसे एक क्षण में नीचे गिराया जा सकता है। उसी तरह सद्गुण प्राप्त करना बहुत कठिन होता है, पर दुर्गुण अनायास ही प्राप्त होते है।
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खद्योतो द्योतते तावत् यावन्नोदयते शशी ।
उदिते तु सहस्रांशौ न खद्योतो न चन्द्रमा ।।
६५. जब तक चंद्र का उदय नही होता तब तक तारा या जुगनू चमकता है और सूर्योदय होने के बाद ना चंद्र चमकता है, ना तारे या ना जुगनू। जहाँ कोई महान व्यक्तिमत्व उपस्थित हो वहाँ किसी भी छोटे व्यक्ती का प्रभाव सीमित रहता है।

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गुणम् पृच्छस्व मा रूपम् , शीलम् पृच्छस्व मा कुलम् ।
सिद्धिम् पृच्छस्व मा विद्याम्, भोगम् पृच्छस्व मा धनम् ।।
६४. गुणोंके बारेमे विचार करो रूपके बारेमे नही, शीलके बारेमे विचार करो कुलके बारेमे नही, सिद्धीके बारेमे विचार करो विद्याके बारेमे नही, उपभोगके बारेमे विचार करो धनके बारेमे नही। मनुष्य के रूप, कुल, विद्या और धन इनकी पेक्षा उसके गुण, शील, यश और विनियोग इनका महत्व अधिक रहता है।
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अप्रार्थितानि दुःखानि यथैवायान्ति देहिनाम् ।
सुखानिच तथा मन्ये दैवमत्रातिरिच्यते।।
जिस प्रकार  प्रार्थना किये बिना दुख मिलते हैं, वैसे ही सुख भी मिल जाते हैं। इसमें दैव ही बलवत्तर होता है ऐसे मै मानता हूँ।.
६३. भाग्यसे सिर्फ दुख ही नही, सुख भी मिल जाते हैं इस तरह का अर्थ भी इस सुभाषित से निकाला जा सकता है।
यह संपूर्णतया दैववादी सिद्धान्त है। दुख से बचने या सुख पाने के वास्ते प्रयत्न ही न करें यह भी सही नही है। वह करने चाहिये ऐसे अन्य कई सुभाषितोंमे कहा गया है।

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एकस्य दुःखस्य न यादवन्तम् ।
गच्छाम्यहम् पारमिवार्णवस्य ।
तावत् द्वितीयम् समुपस्थितम् मे ।
छिद्रेष्वनर्था बहुलीभवन्ति ।।
६२. मै ज्योंही एक दुःखसागरको पार कर लेता हूँ, दूसरा दुःखसागर सामने आ जाता है। छिद्र (कमजोरी) हो तो वहाँ अनर्थोंकी भरमार हो जाती है। (अपने किसी कमजोरीकी वजहसेही बहुतसे अनर्थ हो जाते हैं। कई दुखोंका कारण अपनाही कोई दोष होता है।)
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अलातम् तिन्दुकस्येव मुहूर्तमपि हि ज्वल ।
मा तुषाग्निरिवानर्चि धूमायस्व चिरम् पुनः ।।
६१. मशालकी तरह थोडेही समयके लिये क्यूँ ना हो, ज्वाला बनकर प्रकाश दे। चिरकालतक सिर्फ धुवाँ छोडते मत रहना। लंबी आयु जीनेसे छोटा पर तेजस्वी जीवन जीना बहतर है।

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 अधः करोषि रत्नानि मूर्ध्ना धारयसे तृणम् ।
दोषस्तवैव जलधे, रत्नम् रत्नम् तृणम् तृणम् ।।
६०. हे सागर, तुम रत्नोंको नीचे तलमें रखते हो और घासको अपने मस्तकपर धारण करते हो यह तुम्हाराही दोष है। आखिर रत्न रत्न ही होता है और घास घासही होती है। (हर किसीकी योग्यता समझ लेनी चाहिये और उसे
योग्य स्थान देना चाहिये।)

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यदीच्छसि वशीकर्तुम् जगदेकेण कर्मणा ।
परापवादसस्येभ्यो गाम् चरन्तीम् निवारय ।।
५९.  यदि संसारको अपने बसमे कर लेनेकी चाह हो तो एकही काम करो। परनिन्दारूपी फसलमे चरनेवाली अपनी बुद्धीरूपी गायको ठीकसे सम्हालो। (लोगोंको अपना बनाना हो तो परनिंदा करनेसे हमें बचना चाहिये।)
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चंदने विषधरान् सहामहे वस्तु सुंदरमगुप्तिमत्कुतः।
रक्षितुम् वद किमात्मसौष्ठवम् संचिताः खदिर कंटकास्त्वया।
५८. चंदनके पेडसे नाग लिपटे रहते है यह बात हम सहन कर सकते (समझ सकते) हैं। सुंदर वस्तूको असुरक्षित कैसे रख सकते है? मगर हे बबूल तू इन काटोंसे कौनसे सौंदर्यकी रक्षा कर रहे हो यह बात क्या तुम बता सकते
हो?
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आहार निद्रा भय मैथुनम् च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मोहि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीना पशुभिः समानाः।।
५७. आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये बातें मानव तथा पशू इन दोनोंमे समान होती है। मानवका धर्म यही एक विशेष (पशूओंसे अलग) बात है, धर्महीन मानव हा पशूसमान होता है।
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 वाङ्माधुर्यात् सर्वलोकप्रियत्वम् ।
वाक्पारुष्यात् सर्वलोकाप्रियत्वम् ।
किंवा लोके कोकिलेनोपकारः ।
किंवा लोके गर्दभेणाप्रकारः।।
५६. मधुर भाषणसे संसारमे लोकप्रियता मिलती है, पर कठोर वचनसे हम सब लोगोंमे अप्रिय हो जाते है। कोयलने संसारका कौनसा बडा उपकार किया है? (जो उसे लोकप्रियता मिली।) और गधेने किसीका क्या बुरा किया है? (जो वह किसीको नही भाता।)
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भद्रम् कृतम् कृतम् मौनम् कोकिलैः जलदागमे ।
दर्दुराः यत्र गायन्ति तत्र मौनं हि शोभनम् ।।
५५. आसमानमे काले बादल घिर आतेही (वर्षा ऋतूके प्रारंभ होतेही) कोयलोंने मौन धारण किया यह बात बहुत अच्छी हुई। जब मेंढकोंने गाना शुरू कर दिया हो, वहाँ (कोयलोंने) चुप रहनेमेही शोभा है।

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को न याति वशे लोके मुखे पिंडेन पूरितः ।
मृदुंगो मुखलेपेन करोति मधुरम् ध्वनिम् ।।
५४. मुखमें कुछ खाना खिलानेपर कौन बसमें नही आयेगा? मृदंगके मुखपर आटेका गोल थापनेपर वह भी तो मधुर आवाज करने लगता है। (संसारमे सारेही लोग खिलाने पिलानेपर खुष होकर मीठा बोलने लगते है।)
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माता यदि विषम् दद्यात् विक्रिणीते पिता सुतम् ।
राजा हरति सर्वस्वम् तत्र का परिवेदना ।।
५३. अगर माताही उसके बच्चेको जहर दे, पिताही बेटेको बेच दे और राजाही प्रजाका सर्वस्व लूट ले तो इसकी शिकायत कहाँ और कैसे करें? (अगर रक्षकही भक्षक न जाये तो क्या करे? बडीही मुश्किल होगी।)
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धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।
तस्मात् धर्मो न हन्तव्यः मा नो धर्मः हतोsवधीत् ।।
५२. अगर कोई धर्मका नाश करेगा तो धर्म उसका नाश करता है और जो धर्मका रक्षण करता है उसका रक्षण धर्म करता है। हमे धर्मका नाश नही करना चाहिये ताकि वह अपना नाश नही करेगा। (सुभाषितोंकी रचनाके
कालमे  अलग अलग धर्म नही होते थे, धर्म इस शब्दका अर्थ नीतीनियम होता था)
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न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः । न ते वृद्धाः ये न वदन्ति धर्मम् ।। 
न असौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति । न तत्सत्यम् यच्छलेनाभ्युपेतम् ।।
५१. जहाँ वृद्ध जन न हो वह सभा नही, जो धर्म - नीतीकी बातें न करते हो वे वृद्ध नही, जिसमें सत्य न हो वह धर्म नही और जो कपटसे भरा हो वह सत्य नही। निष्कपट सत्य ही वास्तविक धर्म है जो वृद्ध जनोंके मुखसे
निःसृत होता है।

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